जगदलपुर
दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी कृष्ण कुमार पाढ़ी ने बस्तर दशहरा के तय कार्यकम के संबंध में बताया कि इस वर्ष 2023 में एक माह तक का पुरुषोत्तम/अधिकमास पडने और 28 अक्टूबर को चंद्रग्रहण होने के कारण दशहरा पर्व की समय सीमा बढ़ गई है। उन्होने बताया कि 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा महोत्सव की रस्में इस वर्ष 75 दिन के बजाय 107 दिन में पूरी होंगी। इसका कारण इस वर्ष एक माह अधिकमास है इसलिए बस्तर दशहरा पर्व मनाने की अवधि एक माह बढ़ गई है। उन्होंने बताया कि यदि चंद्रग्रहण नही होता तो यह दशहरा पर्व 105 दिनों का होता। उन्होने बताया कि तीन महीने से अधिक समय तक मनाए जाने वाले इस उत्सव की शुरूआत 17 जुलाई को पाट जात्रा पूजा विधान के साथ होगा।
उन्होने बताया कि बस्तर दशहरा इस वर्ष 107 दिनों तक मनाया जाएगा। बस्तर दशहरा पर्व 17 जुलाई को शुरू होकर 31 अक्टूबर तक चलेगा। हिंदू पंचाग के अनुसार बस्तर दशहरा की शुरूआत 17 जुलाई पाट जात्रा विधान के साथ होगी, 27 सितंबर डेरी गड़ाई पूजा विधान, 14 अक्टूबर काछनगादी पूजा विधान, 15 अक्टूबर कलश स्थापना, जोगी बिठाई पूजा विधान, 21 अक्टूबर बेल पूजा विधान, रथ परिक्रमा पूजा विधान, 22 अक्टूबर निशा जात्रा पूजा विधान, महाअष्टमी पूजा विधान, 23 अक्टूबर कुंवारी पूजा विधान, जोगी उठाई और मावली परघाव पूजा विधान, 24 अक्टूबर भीतर रैनी रथ परिक्रमा पूजा विधान, 25 अक्टूबर बाहर रैनी रथ परिक्रमा पूजा विधान, 26 अक्टूबर को काछन जात्रा पूजा विधान, 27 अक्टूबर को कुटुंब जात्रा पूजा विधान, एवं 31 अक्टूबर को माता की विदाई पूजा विधान के साथ आगामी वर्ष के लिए बस्तर दशहरा का परायण होगा।
उल्लेखनिय है कि बस्तर के आदिवासियों की आराधना देवी मां दंतेश्वरी के दर्शन करने हेतु हर साल देश विदेश भक्त और पर्यटक पहुंचते हैं। बस्तर दशहरा के एतिहासिक तथ्य के अनुसार वर्ष 1408 में बस्तर के काकतीय शासक पुरुषोत्तम देव को जगन्नाथपुरी में रथपति की उपाधि दिया गया था, तथा उन्हें 16 पहियों वाला एक विशाल रथ भेंट किया गया था। इस तरह बस्तर में 615 सालों से दशहरा मनाया जा रहा है। राजा परुषोत्तम देव ने जगन्नाथ पुरी से वरदान में मिले 16 चक्कों के रथको बांट दिया था। उन्होंने सबसे पहले रथ के चार चक्को को भगवान जगन्नाथ को समर्पित किया और बाकी के बचे हुए 12 चक्कों को दंतेश्वरी माई को अर्पित कर बस्तर दशहरा एवं बस्तर गोंचा पर्व मनाने की परंपरा का श्रीगणेश किया था, तब से लेकर अब तक यह परंपरा चली आ रही है।