उत्तरप्रदेशराज्य

इंजीनियर अखिलेश के नए प्रयोग से क्‍या पलटेगी सपा की किस्‍मत, 30 साल बाद सफल होगा कांशीराम-मुलायम के दौर का नार

लखनऊ रायबरेली
अखिलेश ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। सियासत में पिछले एक दशक के दौरान उन्‍होंने एक से बढ़कर एक प्रयोग किए। 2012 में सपा को युवा नेतृत्‍व और नई सोच वाला उनका प्रयोग काफी सफल रहा था। उसी प्रयोग की बदौलत यूपी में न सिर्फ सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी बल्कि अखिलेश ने खुद उसकी कमान भी संभाली लेकिन उसके बाद पारिवारिक कलह के शिकार होकर अखिलेश सियासत के भंवरजाल में ऐसे उलझे कि सत्‍ता तो हाथ से फिसली ही एक के बाद एक प्रयोग असफल होते चले गए।

पहले राहुल गांधी के साथ 'दो लड़कों की जोड़ी', फिर मायावती के साथ 'बुआ-भतीजे' और उसके बाद छोटे दलों के साथ सपा के बड़े गठजोड़ को क्रमश: 2017, 2019 और 2022 में जनता ने नकार दिया। अब 2024 से पहले अखिलेश ने कांग्रेस के गढ़ रायबरेली में कांशीराम की प्रतिमा के अनावरण के जरिए दलित वोटों को साथ लाने का नया प्रयोग किया है। कांशीराम के शिष्‍य रहे स्‍वामी प्रसाद मौर्य कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच हुए गठबंधन की याद दिलाते हुए वह नारा 'जब मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए….' भी लगवाया जो 1993 में खूब गूंजा था।

सियासत में अब तक डा.राम मनोहर लोहिया को ही अपना आदर्श मानने वाली सपा को कांशीराम के आदर्शों से जोड़ने का अखिलेश का यह नया प्रयोग 2024 में कितना सफल होगा? यह भविष्‍य के गर्भ में है। लेकिन फिलहाल इसे लेकर यूपी की सियासत में तेजी तो देखने को मिल ही रही है। अखिलेश अपने इस दांव से बसपा सुप्रीमो मायावती को भी झटका दे रहे हैं और कांग्रेस को भी। कार्यक्रम में स्‍वामी जैसे बसपा के पुराने सिपहसलारों ने मायावती को कांशीराम के सिद्धांतों से भटक जाने वाली नेत्री बताते हुए दलितों से सपा के साथ आह्वान किया। उनकी पूरी कोशिश यह बताने की रही कि बसपा का अब सफाया हो चुका है और प्रदेश में हालात 1993 जैसे हैं जब मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के गठजोड़ ने रामरथ पर सवार भाजपा को सत्‍ता में आने से रोक दिया था। तब सपा-बसपा का गठबंधन ऐसे वक्‍त में हुआ था जब 1992 में अयोध्‍या में विवादास्‍पद ढांचा गिराए जाने के बाद तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री कल्‍याण सिंह ने इस्‍तीफा दे दिया था। भाजपा को पूरा यकीन था कि राम लहर उसे आसानी से सत्‍ता दिला देगी लेकिन मुलायम-कांशीराम के साथ आने से यह यकीन गलत साबित हुआ।

अब अखिलेश यादव और सपा अब दलित वोटरों को यह संदेश देने में जुटे हैं कि आज मुलायम सिंह और कांशीराम भले न हों लेकिन दोनों का आधार वोट बैंक यानी पिछड़ा, मुस्लिम और दलित एक हो जाए तो सियासत का रुख फिर बदल सकता है। इसी मकसद से समाजवादी पार्टी ने अम्‍बेडकरवादी विचारधारा वाले नेताओं जैसे स्‍वामी प्रसाद मौर्य, रामअचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज, डॉ.महेश वर्मा, त्रिभवन दत्‍त और आरके चौधरी को जोड़ा है और पार्टी में उन्‍हें खूब तवज्‍जो भी मिल रही है।

लेकिन 2019 में तो सफल नहीं हुआ गठजोड़?
सपा-बसपा का जो गठजोड़ 1993 में पूरी तरह कामयाब रहा था वही 2019 के लोकसभा चुनाव में विफल हो गया। इस चुनाव में सपा को जहां सिर्फ 5 सीटें मिलीं वहीं बसपा को 10 सीटें। भाजपा उत्‍तर प्रदेश में भी अपनी जीत का परचम लहराने में पूरी तरह सफल रही। चुनाव के बाद मायावती और अखिलेश दोनों ने जमीनी स्‍तर पर वोट ट्रांसफर न हो पाने की सच्‍चाई को महसूस किया और चुनाव के कुछ समय बाद ही गठजोड़ टूट गया। अब दोनों दलों को लगता है कि गठबंधन के जरिए नहीं लेकिन एक-दूसरे के वोट बैंक को अपने पाले में करके फिर से सियासत की नई इबारत लिखी जा सकती हैं। यही वजह है कि अखिलेश जहां दलितों के वोट पाने के लिए कांशीराम की विरासत पर कब्‍जे की कोशिश में हैं वहीं मायावती मुस्लिम समाज को संदेश देने में जुटी हैं कि भाजपा का मुकाबला उनकी पार्टी ही कर सकती है। वैसे अखिलेश के नए दांव को लेकर मायावती की सतर्कता भी दिखती है। दो दिन पहले पार्टी जिलाध्‍यक्षों की बैठक में उन्‍होंने यहां तक कह दिया कि 1995 का गेस्‍ट हाउस कांड नहीं हुआ होता तो आज सपा-बसपा राज कर रही होतीं।  वहीं पार्टी अध्‍यक्ष सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में अखिलेश की इस कवायद पर फिलहाल कांग्रेस की ओर से बड़ी सामान्‍य प्रतिक्रिया आई है। साफ लग रहा है कि 2024 के लिए सियासी साथ खोज रही देश की सबसे पुरानी पार्टी फिलहाल विपक्षी एकता की कोशिशों पर नज़र लगाए है और राहुल गांधी की सदस्‍यता जाने से उपजे हालात को परखने में व्‍यस्‍त है।

 

Pradesh 24 News
       
   

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button