देश

तीन तलाक की पीड़िता शाहबानो मामले से निकली थी UCC की राह, क्या थी SC की सलाह

नई दिल्ली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान के बाद समान नागरिक संहिता (UCC) को लेकर चर्चा तेज हो गई है। इस मुद्दे पर किसी भी तरह की चर्चा शुरू करने से पहले इसके इतिहास पर एक नजर डालने की आवश्यक्ता है। 1970 के दशक में 60,000 रुपये सलाना कमाई करने वाले वकील मोहम्मद अहमद खान ने 43 साल के बाद अपनी पत्नी शाहबानो को तलाक दे दिया था। इसके एवज में सिर्फ 179 रुपये की मासिल गुजारा भत्ता देने का फैसला हुआ था। इसके खिलाफ शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। सुनवाई के दौरान संविधान के अनुच्छेद 44 की भी चर्चा हुई, जिसमें देश के लिए समान नागरिक संहिता की परिकल्पना की गई है।

आपको बता दें कि दोनों की शादी 1932 में हुई थी। 1975 में तलाक देने के बाद शाहबानो को घर से बाहर निकाल दिया गया था। इसके बाद बानो ने अप्रैल 1978 में इंदौर की एक अदालत में मासिक भरण-पोषण भत्ते के रूप में 500 रुपये की मांग की थी। इसके बाद अहमद खान ने नवंबर 1978 में उन्हें तलाक दे दिया। अगस्त 1979 में मजिस्ट्रेट ने उन्हें प्रति माह 20 रुपये की मामूली रकम देने का फैसला सुनाय। शाहबानो की अपील पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इसे बढ़ाकर 179 रुपये कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई। अप्रैल 1985 में इस मामले पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों वाली बेंच ने अहमद खान को शाहबानो को 10,000 रुपये की अतिरिक्त राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया। हालांकि, मासिक भत्ते पर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।

सुप्रीम कोर्ट ने जताया था अफसोस
फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ''यह भी अफसोस की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 एक मृत पत्र बनकर रह गया है। देश के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के लिए किसी भी आधिकारिक गतिविधि का कोई सबूत नहीं है। ऐसा लगता है कि यह धारणा मजबूत हो गई है कि मुस्लिम समुदाय को अपने पर्सनल लॉ में सुधार के मामले में पहल करना होगा।''

UCC लागू करना सरकार का कर्तव्य: एससी
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा था, ''सरकार पर देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का कर्तव्य है। निस्संदेह उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है।'' इस मामले में एक वकील ने फुसफुसाते हुए कहा था कि विधायी क्षमता एक बात है, उस क्षमता का उपयोग करने का राजनीतिक साहस दिखाना बिल्कुल अलग बात है। पीठ ने पति का पक्ष लेने के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कड़ी आलोचना की थी। साथ ही 1950 के दशक में पाकिस्तान में विवाह और परिवार कानूनों पर आयोग की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बड़ी संख्या में मध्यम आयु वर्ग की महिलाओं के तलाक पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी।

राजीव गांधी की सरकार ने लागू किया था नया अधिनियम
भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के बजाय राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में शाहबानो फैसले के प्रभाव को खत्म करने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम बनाया। सुप्रीम कोर्ट ने भी 1986 के इस अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा। हालांकि, डैनियल लतीफी (2001), इकबाल बानो (2007) और शबाना बानो (2009) मामलों में यह कहना जारी रखा कि मुस्लिम महिलाओं को धारा 125 के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है। सीआरपीसी ने पतियों को पत्नियों को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया है।

UCC लागू करना सरकार का काम: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर लगभग एक दशक तक शांत रहा। इस दौरान महर्षि अवधेश (1994) द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 1986 के कानून को चुनौती दी गई थी और समान नागरिक संहिता लागू करने या मुस्लिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने की मांग की गई थी। कोर्ट ने कहा था कि ये सभी विधायिका के मामले हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल भी 29 मार्च को यूसीसी लागू करने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया। 1994 में कही गई बात को दोहराया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''यूसीसी के अधिनियमन के लिए इस अदालत का दरवाजा खटखटाना एक गलत मंच पर जाने के समान है। यह संसद के विशेष अधिकार क्षेत्र में आता है।''

 

Pradesh 24 News
       
   

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button