‘तलाक की कानूनी लड़ाई में बच्चे को मोहरा नहीं बना सकते’, DNA टेस्ट पर राजस्थान हाई कोर्ट का फैसला
नई दिल्ली
राजस्थान हाई कोर्ट ने बच्चे के डीएनए टेस्ट पर अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि पति-पत्नी तलाक की कानूनी लड़ाई में बच्चे को मोहरा नहीं बना सकते। हाई कोर्ट ने न सिर्फ डीएनए टेस्ट के बच्चे के शारीरिक और मानसिक रूप से पड़ने वाले असर की चर्चा की है बल्कि यह भी बताया है कि डीएनए टेस्ट से बच्चे के कौन कौन से अधिकारों का अतिक्रमण होता है। हाई कोर्ट ने कहा है कि इससे बच्चे के संपत्ति के अधिकार, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार, निजता के अधिकार और विश्वास के अधिकार यानी भरोसा करने के अधिकार का अतिक्रमण होता है।
हाई कोर्ट ने क्या कहा?
हाई कोर्ट ने कहा कि इसके अलावा बच्चे को माता पिता का प्यार दुलार पाने की खुशी का अधिकार भी प्रभावित होता है। हाई कोर्ट ने कहा है कि डीएनए टेस्ट की मांग पर विचार करते समय अदालत के लिए बच्चे के हित सर्वोपरि होने चाहिए। तलाक के मुकदमे में बच्चे के डीएनए टेस्ट की मांग पर यह अहम फैसला न्यायमूर्ति डाक्टर पुष्पेन्द्र सिह भाटी ने मई के आखिरी सप्ताह में दिया।
हाई कोर्ट ने नया आधार और दलील जोड़ने की मांग की खारिज
इस मामले में हाई कोर्ट ने तलाक के मुकदमे में पति की ओर से बच्चे के डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट को आधार बनाते हुए तलाक की अर्जी में नया आधार और दलील जोड़ने की मांग खारिज कर दी है। पति की ओर से बच्चे की डीएनए रिपोर्ट का हवाला देकर बच्चे का पिता होने से इनकार किया गया था और मांग की गई थी कि उसे तलाक की लंबित अर्जी में इसे भी एक आधार के रूप में जोड़ने की इजाजत दी जाए। तलाक अर्जी में संशोधन की इजाजत दी जाए।
पति ने राजस्थान हाई कोर्ट में दाखिल की थी याचिका
परिवार अदालत से अर्जी खारिज होने के बाद याचिकाकर्ता पति ने राजस्थान हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की थी, लेकिन हाई कोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी। हाई कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए आदेश में बच्चे की वैधता के बारे में साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 का हवाला दिया है।
क्या कहती है साक्ष्य अधिनियम की धारा 112?
साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 कहती है कि शादी के उपरांत पैदा हुई संतान उसकी वैधता का निर्णायक प्रमाण है। यह धारा कहती है कि अगर किसी का जन्म वैध शादी के उपरांत हुआ है, या शादी टूटने के बाद 280 दिन के भीतर हुआ है और उस दौरान मां की शादी नहीं हुई है तो यह निर्णायक प्रमाण होगा कि वह बच्चा उसी व्यक्ति का बच्चा है। जबतक कि यह साबित न कर दिया जाए कि शादी के बाद दोनों पक्ष कभी एक दूसरे से नहीं मिले न संबंध बने।
2010 में हुई थी शादी
हाई कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि इस मामले में दोनों की शादी 2010 में हुई थी और अप्रैल 2018 को बच्चे का जन्म हुआ। पांच जनवरी 2019 को पति का घर छोड़कर पत्नी चली गई। रिकार्ड देखने से साफ होता है कि बच्चे के जन्म के समय दोनों (पति-पत्नी) साथ रह रहे थे, इसका मतलब है कि पति को पत्नी से संबंध कायम करने की पहुंच थी यानी वह संबंध स्थापित कर सकता था। इसलिए इस मामले में साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 में दी गई धारणा पर किसी तरह का सवाल नहीं उठता। इस मामले में पति ने पत्नी और बच्चे को भरोसे में लिए बगैर बच्चे का डीएनए टेस्ट कराया था और उसकी रिपोर्ट को आधार बना कर दलील दे रहा था कि उसमें वह बच्चे का पिता नहीं है। हालांकि तलाक के दाखिल मुकदमे में उसने सिर्फ क्रूरता को आधार बनाया था। पत्नी पर व्याभिचार का आरोप नहीं लगाया था।