राजनीति

वाम-TMC की नहीं बनती, AAP और कांग्रेस से तकरार बरकरार; विपक्षी एकता में रोड़े हजार

नई दिल्ली

कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद विपक्षी खेमे में सुगबुगाहट तेज हो गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दौरों से ऐसा प्रतीत तो हो रहा है कि इस बार विपक्ष चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर गंभीर है। हालांकि, राजनीतिक विशेषज्ञ इस कवायद को समयानुसार तो मानते हैं लेकिन कठिन बताते हैं। इसकी वजह यह है कि अलग-अलग कारणों से विपक्ष तीन खेमों में बंटा है, जिसे एक साथ ला पाना अत्यधिक चुनौतीपूर्ण काम है।लोकसभा में 38 राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व है। इनमें से 12 दल ही ऐसे हैं, जिनके सांसदों की संख्या पांच या इससे अधिक है। जबकि नौ पार्टियों के दो या तीन सदस्य हैं। 17 दल एक सांसद वाली छोटी पार्टियां हैं। एकमात्र अन्नाद्रमुक ऐसा बड़ा दल है जिसका संसद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

मौजूदा समय में विपक्षी दल तीन धाराओं में बंटे हुए हैं। इनमें एक कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए है, जिससे 19 छोटे-बड़े दल जुड़े हैं। जबकि दूसरे समूह में उन दलों को रखा जा सकता है जो भाजपा के खिलाफ तो हैं लेकिन यूपीए का हिस्सा नहीं हैं। इनमें तृणमूल कांग्रेस, आप, सपा, बीआरएस और वामदल शामिल हैं। तीसरे समूह में तटस्थ दलों को रखा जा सकता है जो खुले तौर पर भाजपा के विरोधी नहीं हैं और जरूरत पड़ने पर संसद में उसका साथ दे सकते हैं। इनमें बीजद, वाईएसआर कांग्रेस, तेदेपा, बसपा एवं अकाली दल तथा कुछ अन्य छोटी पार्टियां शामिल हैं।

ये हैं राह में रोड़े
राजनीतिक जानकारों के अनुसार, विपक्ष को एकजुट होने के लिए सबसे जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा दल यूपीए के तहत आएं। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा। तृणमूल कांग्रेस का रुख कांग्रेस को लेकर लचीला हुआ है लेकिन कांग्रेस को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का प्रस्ताव जंचा नहीं है। आप-कांग्रेस के बीच दूरी बरकरार है। तृणमूल और वामदलों को एक मंच पर आने में कठिनाई है। इसी प्रकार तेलंगाना में बीआरए-कांग्रेस की आमने-सामने टक्कर है। हालांकि, बंगाल में तृणमूल, कांग्रेस और वामदलों यदि मिलकर गठबंधन में लड़ते हैं तो इससे वहां विपक्ष की सीटें बढ़ सकती हैं। लेकिन राष्ट्रीय मुद्दों पर यूपीए के साथ खड़े रहने वाले वामदल इसमें भी सहज नहीं हैं। ऐसा ही उत्तर प्रदेश और बिहार में संभव है। बिहार में वैसे भी मौजूदा गठबंधन आम चुनावों में जारी रहेगा। विशेषज्ञ मानते हैं कि इन कारणों के चलते सभी राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधन संभव नहीं है। सभी राज्यों में इसकी सफलता की गारंटी भी नहीं है। उत्तर प्रदेश में 2019 में सपा-बसपा गठबंधन को मामूली ही सफलता मिल पाई थी।

इन चुनौतियां से निपटना होगा
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि विपक्ष को एकजुट होने के साथ ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम घोषित करना होगा, जो जन आकांक्षाओं के अनुरूप हो और सरकार से नाराज वर्ग को लुभा सके। तभी एकजुटता कामयाब रहेगी। ऐसा नहीं हो कि विपक्षी एकजुटता में सिर्फ मोदी विरोध ही दिखाई दे। इससे भी बड़ी चुनौती विपक्ष के लिए चुनाव से पूर्व कोई दमदार चेहरा पेश करने की होगी।

नए रूप में तैयार हो रही रणनीति
राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर सुबोध कुमार मेहता कहते हैं कि इस बार विपक्ष की रणनीति नए रूप में तैयार हो रही है। पहले बने गठबंधनों की तुलना में इसमें दो भिन्नताएं हैं। एक, यह चुनाव पूर्व बनने वाला गठबंधन होगा। दूसरे, इसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक आकांक्षाओं का समायोजन होगा। यदि इस फॉर्मूले पर विपक्ष एकजुट होता है तो यह आम चुनाव में असरदार होगा। जहां तक तटस्थ रहने वाले दलों की बात है, तो यह भी स्पष्ट है कि जिस गठबंधन की सरकार बनेगी वह परोक्ष रूप से उसके साथ खड़े नजर आएंगे।

 

Pradesh 24 News
       
   

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button