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आदिवासियों पर मशीन गन से चली थीं गोलियां, क्या था खरसावां हत्याकांड, जिसकी 75 साल बाद आज फिर चर्चा

नई दिल्ली
नए साल के पहले दिन आज खरसावां हत्याकांड ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है। आज की पीढ़ी के तमाम लोग यह जानते भी नहीं होंगे कि यह कौन सी घटना है, जो आज भी लोगों को उद्वेलित करती है। दरअसल 1 जनवरी, 1948 को झारखंड के सरायकेला खरसावां में यह घटना हुई थी, जब हजारों आदिवासी लोगों की भीड़ पर पुलिस ने मशीन गनों से फायरिंग कर दी थी। इसमें हजारों लोग मारे गए थे। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने तो इसे आजाद भारत का जलियांवाला बाग कांड करार दिया था। दुखद बात यह थी कि यह घटना उस दौर में हुई, जब देश स्वतंत्रता के बाद पहले नए साल का जश्न मना रहा था।  

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में रियासतों का विलय हो रहा था। उसी दौरान सिंहभूम स्टेट में आने वाले सरायकेला और खरसावां को लेकर समस्या खड़ी हो गई। इन दोनों क्षेत्रों के लोग झारखंडी संस्कृति का पालन करने वाले थे, जबकि उनके शासन उड़िया भाषी थे। शासकों ने ओडिशा के साथ सरायकेला और खरसावां के विलय का प्रस्ताव रख दिया और जनता की मंशा को नजरअंदाज कर दिया गया। इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने भी स्वीकार कर लिया था, जिससे झारखंडी आदिवासी समाज में गुस्सा भड़क गया। दरअसल यह पूरा प्लान प्रभावशाली उड़िया नेता विजय कुमार पाणी ने बनाया था। उनका यह भी प्रस्ताव था कि चक्रधरपुर का ओडिशा में विलय कर दिया जाए।

किसने किया था आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व, क्यों भड़के थे लोग
इस फैसले के खिलाफ हजारों लोग उतर आए और इसके आजादी की दूसरी लड़ाई आदिवासियों ने करार दिया। इस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लोगों में जयपाल सिंह मुंडा भी शामिल थे। उन्हें झारखंड आंदोलन का प्रणेता भी कहा जाता है। उन पर ही लिखी गई पुस्तक 'द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ जयपाल सिंह मुंडा' में संतोष किरो लिखते हैं कि यह झारखंडी लोगों के लिए अपनी पहचान बचाने का आंदोलन था। वह लिखते हैं, 'कांग्रेस और ओडिशा की कांग्रेस सरकारें झारखंड की आबादी को लेकर चिंतित नहीं थीं। जयपाल को लगा इस तरह तो झारखंडियों का भविष्य अंधेरे में चला जाएगा। उन्होंने झारखंड की अलग पहचान और अस्तित्व की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया।'

मरने वालों की संख्या 30 हजार तक बताई जाती है
अंत में 1 जनवरी, 1948 को आदिवासी महासभा के बैनर तले खरसावां में बड़ी संख्या में लोग जुटे। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं और इन लोगों की पीठ पर तीर और धनुष थे। कई दिनों का राशन-पानी पीठ पर ही लादकर ये लोग खरसावां के हाट मैदान में पहुंचे थे। ये लोग चक्रधरपुर, सरायकेला, खरसावां और जमशेदपुर जैसे इलाकों से आए थे। ये लोग जब सरकार के प्रतिनिधियों को ज्ञापन देकर लौट रहे थे तो उड़िया पुलिस ने उन पर फायरिंग शुरू कर दी। इस फायरिंग में कम से कम 1000 लोग मारे गए थे। हालांकि गैर-आधिकारिक दावों में मारे गए लोगों की संख्या 30 हजार तक बताई जाती है।

राम मनोहर लोहिया ने बताया था दूसरा जलियांवाला कांड
इस घटना पर राम मनोहर लोहिया ने दुख जाहिर करते हुए इसकी तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की थी। उन्होंने कहा था, 'यह दूसरा जलियांवाला बांग कांड था। जलियांवाला बांग हत्याकांड भारत की आजादी के आंदोलन में अहम भूमिका रखता है। उस कांड को विदेशी सरकार ने अंजाम दिया था और विदेशी जनरल डायर के आदेश पर ही यह हुआ था। अब आजाद भारत में ओडिशा सरकार ने अपने ही लोगों पर यह जुल्म ढाया है। इससे शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता।'

 

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