सजा मिलते ही चली जाती है सदस्यता, राहुल गांधी के पास बचाव का यह आखिरी रास्ता
नई दिल्ली
मोदी सरनेम पर आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर दायर मानहानि केस में राहुल गांधी को दो साल की सजा मिली है। कानूनी जानकारों का कहना है कि जनप्रतिनिधित्व कानून के सेक्शन 8(3) के तहत प्रावधान है कि यदि किसी भी विधायक अथवा सांसद को 2 साल या उससे अधिक की सजा मिलती है तो उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से चली जाएगी। राहुल गांधी की सजा को सूरत की अदालत ने एक महीने के लिए निलंबित किया है और उन्हें ऊपरी अदालत में अपील दायर करने का मौका दिया है। फिर भी कानून के जानकारों का कहना है कि राहुल गांधी को सजा में एक महीने मोहलत मिलने से सदस्यता नहीं बच पाएगी।
एक्सपर्ट्स के मुताबिक राहुल गांधी के पास सदस्यता को बचाए रखना आखिरी रास्ता अब अदालत ही है। चुनाव आयोग के साथ ऐसे मामलों में काम कर चुके कानून के जानकारों का कहना है कि राहुल गांधी के पास सदस्यता बचाने का यही विकल्प है कि ट्रायल कोर्ट खुद ही उनकी सजा को कम करे या माफ कर दे। इसके अलावा ऊपरी अदालत यदि सजा को कम कर दे या खत्म कर दे तो भी उन्हें राहत मिल सकती है। साफ है कि राहुल गांधी के लिए जो दर्द अदालत के फैसले से मिला है, उसकी दवा भी कोर्ट से ही मिल पाएगी।
कैसे लक्षद्वीप के सांसद की बची सदस्यता, राहुल के पास भी विकल्प
हाल ही में लक्षद्वीप के सांसग मोहम्मद फैजल का केस सामने आया था। इस मामले में उनकी सदस्यता को समाप्त कर दिया गया था और उनकी सीट को लोकसभा सचिवालय ने खाली घोषित कर दिया था। उन्हें हत्या के प्रयास के मामले में जनवरी में सजा सुनाई गई थी। इसके बाद चुनाव आयोग ने उनकी सीट पर उपचुनाव का आदेश दे दिया था, लेकिन फिर हाई कोर्ट ने उनकी सजा पर स्टे लगा दिया तो मेंबरशिप बहाल हो गई और चुनाव आयोग ने उपचुनाव की अधिसूचना को वापस ले लिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से और सख्त हुआ कानून
दरअसल जुलाई 2013 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जनप्रतिनिधित्व कानून सख्त हो गया था। पहले नियम था कि यदि किसी सांसद एवं विधायक को दो साल या उससे अधिक की जेल होती है तो फिर उन्हें तीन महीने का वक्त अपील के लिए मिलता था। फिर उस अपील पर अदालत की ओर से फैसला ना आने तक सदस्यता बनी रहती थी। इसी नियम के तहत नवजोत सिंह सिद्धू को 2007 में राहत मिली थी, जब उन्हें तीन साल जेल की सजा गैरइरादतन हत्या के मामले में सुनाई गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस नियम को गलत मानते हुए 10 जुलाई, 2013 को अपने एक फैसले से खारिज कर दिया था।