बिहार में 2014 का फार्मूला अपनाया तो BJP की बढ़ेगी टेंशन, NDA के 5 दलों को मनाना कितना मुश्किल
नई दिल्ली
बिहार में दोनों सियासी धड़ों (महागठबंधन और एनडीए) का स्वरूप लगभग आकार लेता नजर आ रहा है। महागठबंधन में जहां राजद, जेडीयू, कांग्रेस और वाम दल (CPI, CPI-M, CPI-ML) शामिल हैं, वहीं एनडीए में अभी भी कई दलों के औपचारिक तौर पर शामिल होने की राह देखी जा रही है। वैसे इस गठबंधन में अभी बीजेपी और पशुपति कुमार पारस की अगुवाई वाली राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी ही शामिल है। उम्मीद की जा रही है कि चिराग पासवान की अगुवाई वाली लोक जनशक्ति पार्टी, उपेंद्र कुशावहा का राष्ट्रीय लोक जनता दल, जीतन राम मांझी का हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा और मुकेश सहनी की वीआईपी भी देर-सवेर इसी गठबंधन का हिस्सा होंगी।
इन चार दलों के नेताओं ने एनडीए में शामिल होने का औपचारिक ऐलान अभी इसलिए नहीं किया है, क्योंकि ऐसा कर वह बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि 2024 के चुनावों में उन्हें अधिक से अधिक सीटें मिले। बीजेपी भी इसे बखूबी जानती है, इसलिए बहुत ज्यादा हाथ-पैर नहीं मार रही लेकिन जनता को यह संदेश देने में लगातार जुटी है कि महागठबंधन के पक्ष में सभी दल या समुदाय नहीं हैं। बीजेपी दलित वोटरों को लेकर ज्यादा सजग दिख रही है, इसलिए वह पासवान, मांझी और सहनी पर डोरे डाल रही है।
2014 के फार्मूले पर बीजेपी:
सूत्रों के मुताबिक सीट शेयरिंग के मुद्दे पर बीजेपी 2014 के फार्मूले पर चलना चाह रही है। 2014 में 30 सीटों पर खुद बीजेपी ने उम्मीदवार उतारे थे, जबकि 10 सीटों पर सहयोगी दलों के उम्मीदवार उतरे थे। तब एनडीए में केवल दो दल (लोजपा और रालोसपा) ही सहयोगी दल थे। रामविलास पासवान की अगुवाई में लोजपा ने सात सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से 6 पर जीत हुई थी, जबकि उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा ने तीन सीटों में से दो पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी ने 30 में से 22 पर जीत दर्ज की थी। एनडीए को तब कुल 40 में से 31 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।
10 साल बाद कैसी परिस्थिति:
अब 10 साल बाद एनडीए की परिस्थितियां बदल चुकी हैं। सियासत के मौसम वैज्ञानिक कहलाने वाले रामविलास पासवान की लोजपा दो भागों में बंटी है। एक गुट भाई पशुपति पारस की अगुवाई में तो दूसरा बेटा चिराग की अगुवाई में संघर्षशील है। दोनों दल अधिक से अधिक सीटें मांग रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक, चिराग पासवान छह लोकसभा, एक राज्यसभा और दो विधान परिषद की सीट की मांग बीजेपी के सामने रख चुके हैं।
बीजेपी को पता है कि पासवान समुदाय के करीब पांच फीसदी वोट बैंक पर चाचा पशुपति से ज्यादा चिराग की पकड़ मजबूत है। इसलिए संभव है कि बीजेपी चाचा से ज्यादा भतीजे को भाव दे लेकिन उसे छह सीटें मिलना तो मुश्किल लगता है क्योंकि 10 सीटों के अंदर ही पांचों सहयोगी दलों को निपटाना है। अब एनडीए में लोजपा के दो धड़ों के अलावा तीन और दल शामिल हैं।
लोजपा को सिर्फ तीन सीट, चाचा-भतीजे में रार:
ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी लोजपा के दोनों धड़ों को मिलाकर कुल तीन सीटें (चिराग दो और पशुपति एक) दे सकती है। अगर इस पर दोनों पक्ष राजी हो जाते हैं, तब भी हाजीपुर सीट की लड़ाई एनडीए के लिए गले की फांस बन सकती है, क्योंकि चिराग इसे अपने पिता की विरासत के रूप में हर हाल में हासिल करना चाहते हैं और बागी चाचा को यहां से पैदल करना चाहते हैं। उधर मोदी सरकार में मंत्री पारस इस सीट को अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाकर बीजेपी से सुरक्षा कवच की मांग कर सकते हैं। इस सीट पर उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी को मुश्किल हो सकती है।
मांझी, सहनी और कुशवाहा की स्थिति क्या?
यह भी संभव है कि बीजेपी सभी सहयोगी दलों को दो-दो सीटें देकर सभी को समान भाव देने की कोशिश करे। अगर ऐसा होता है तब उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी बीजेपी से बिदक सकते हैं क्योंकि 2014 में जहां कुशवाहा तीन सीटों पर चुनाव लड़ चुके हैं, वहीं मांझी 2019 में महागठबंधन में रहते हुए तीन सीटों पर चुनाव लड़ चुके हैं। मांझी ने पांच सीटें मांगी थी लेकिन जब महागठबंधन में उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो वह उससे अलग हो गए। कुशवाहा भी अपनी पार्टी का विलय जेडीयू में करा चुके हैं लेकिन जब उप मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली, तो उन्होंने जेडीयू से अलग होकर फिर से नई पार्टी बना ली। इन दोनों नेताओं की कोशिश है कि एनडीए गठबंधन में अधिक से अधिक सीटों पर दावा ठोककर उसे हासिल करें लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है क्योंकि बीजेपी उनके जनाधार को जानती है। मछुआरा वोट बैंक वाले इलाकों में सहनी भी पांच सीटों की ताक में हैं।
बीजेपी का दांव क्या:
हालांकि, बीजेपी किसी भी सहयोगी दल को नाराज नहीं करना चाहेगी क्योंकि इससे उसके खिलाफ संदेश जा सकता है। खासकर बीजेपी पासवान, मांझी और सहनी को हरसंभव अपने पाले में रखना चाहेगी, ताकि दलित-पिछड़ा विरोधी होने के आरोप को वह नकार सके। सूत्र यह भी बता रहे हैं कि बीजेपी सहयोगी दलों को खुश करने के लिए कुछ ज्यादा सीटें भले ही दे दे लेकिन उस पर उम्मीदवार बीजेपी का ही हो सकता है।