भोपालमध्यप्रदेश

“अपने अंजाम तक पहुंचा नृत्य—कलाओं का सतरंगी सिलसिला, सात दिनों में खिल उठे संगीत के सात सुर”

भोपाल

सात दिन का नृत्य—कलाओं का सतरंगी सिलसिला "50वां खजुराहो नृत्य समारोह" सोमवार को अपने अंजाम तक पहुंच गया। इन सात दिनों में मानो संगीत के सातों सुर खिल उठे। विश्वविख्यात नृत्य अनुष्ठान में भारतीय संस्कृति अपने उदात्त रूप में दिखी। समापन अवसर पर उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी के निदेशक जयंत माधव भिसे ने सभी का आभार जताते हुए कहा कि यह एक सांस्कृतिक अनुष्ठान या यज्ञ है इसमें आप सभी ने अपने—अपने स्तर पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जो आहुति दी उसके लिए साभार और धन्यवाद जैसे शब्द छोटे हैं। वास्तव में सभी का सहयोग स्तुत्य है और उसी की वजह से यह आयोजन सफल हुआ। यहां पधारे अतिथि कलाकारों, गुरुओं, कला रसिकों, कला के विद्यार्थियों को भी उन्होंने हृदय की अंतरिम गहराइयों से धन्यवाद प्रकट किया और इस सांस्कृतिक यात्रा को अनवरत ऊंचाइयों पर बनाए रखने के लिए निवेदन किया।

समारोह के अंतिम दिन भी पद्मविभूषण डॉ.सोनल मानसिंह से लेकर अनुराधा सिंह तक सभी ने ऐसे रंग भरे कि बसंत मुस्कुरा उठा। अंतिम दिन की शुरुआत विख्यात भरतनाट्यम और ओडिसी नृत्यांगना डॉ.सोनल मानसिंह और उनके समूह की नृत्य प्रस्तुति से हुआ। सोनल मानसिंह भारतीय संस्कृति के प्रति जो श्रद्धा और प्रेम रखती हैं वह उनकी नृत्य प्रस्तुतियों में सदैव दृष्टिगोचर होता है। केलीचरण महापात्र से जो संस्कार उन्हें मिले वह उनकी नृत्य प्रस्तुतियों में साफ पानी की तरह दिखते हैं। उन्होंने नृत्यनाटिका मीरा की रसमय प्रस्तुति दी। भरतनाट्यम और ओडिसी दोनों शैलियों के सम्मिश्रण से तैयार इस प्रस्तुति में मीरा का चरित्र और कृष्ण के प्रति उनका प्रेम सरोवर में खिले हुए कमल की तरह दिखा।

अगली प्रस्तुति भरतनाट्यम की थी। बैंगलोर से आईं विदुषी डॉ. राजवारियार ने भरतनाट्यम की शानदार प्रस्तुति दी। उन्होंने बतौर मंगलाचरण शारदा अलारिप्पु की प्रस्तुति दी। अलारिप्पु भरतनाट्यम का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसका अर्थ है खिलना। यानि अलारिप्पु से नृत्य खिलता है। इसमें राजने मां शारदा की स्तुति की। उनकी अगली प्रस्तुति भगवान नटराज की स्तुति में थी। राग दुर्गा और अनादि ताल में संगीतबद्ध इस प्रस्तुति में राजने शिव के तांडव स्वरूप को साकार करने की कोशिश की। इन प्रस्तुतियों में उनके साथ गायन में डॉ. श्रीदेव राजगोपाल, नतवांगम पर एल वी हेमंत लक्ष्मण, मृदंगम पर चंद्रकुमार और वीणा पर प्रो. वी सुंदरराजन ने साथ दिया।

तीसरी प्रस्तुति में भोपाल की डॉ. यास्मीन सिंह का मनोहारी कथक नृत्य हुआ। उन्होंने सूर्य वंदना से अपने नृत्य का आरंभ किया। आदि ह्रदय स्त्रोत से लिए गए श्लोकों को राग बिभास के सुरों में पिरोकर और त्रिताल के पैमाने में बांधकर उन्होंने भगवान सूर्य की आराधना में नृत्य भाव पेश किए। उन्होंने इस प्रस्तुति में राम की रावण पर विजय को भी भाव नृत्य से दिखाया। क्योंकि राम भी सूर्यवंशी थे। दूसरी प्रस्तुति सरगम की थी। राग बसंत के सुरों में भीगी और ताल बसंत में बंधी इस प्रस्तुति में उन्होंने तोड़े टुकड़े और परनों के साथ कुछ खास गतों से प्रकृति प्रेम भी दिखाया। इसके साथ ही पैरों का काम और तबले के साथ सवाल—जवाब भी दिखाए। नृत्य का समापन उन्होंने ठुमरी चंद्रवदनी मृगलोचनी पर एक नायिका के सौंदर्य वर्णन से किया। श्रृंगार के रस का उदात्त स्वरूप तीन ताल की इस ठुमरी में देखने को मिला। इस प्रस्तुति की नृत्य रचना स्वयं यास्मीन की थी। उनके साथ नृत्य में सुब्रतो पंडित, श्रीयंका माली, संगीता दस्तीकार, विश्वजीत चक्रवर्ती, प्रसनजीत, अभिषिकता मुखोपाध्याय, संदीप सरकार, नील जैनिफर ने सहयोग किया। जबकि गायन में जयवर्धन दाधीच, पखावज पर आशीष गंगानी, सारंगी पर आमिर खान, सितार पर किशन कथक, तबले पर शाहनवाज, और पढंत पर एलिशा दीप गर्ग ने साथ दिया।

मैसूर से आई डॉ. कृपा फड़के ने भी अपने साथियों के साथ भरतनाट्यम की प्रस्तुति देकर समारोह में रंग भरे। उन्होंने सम्पूर्ण रामायण की प्रस्तुति दी। इस प्रस्तुति में उन्होंने भगवान राम के गुणों सहित रामायण के प्रमुख घटनक्रमों को अपने नृत्य भावों में समाहित करके जब सामने रखा तो दर्शक मुग्ध हो गए। इस प्रस्तुति में कृपा फड़के के साथ पूजा सुगम, समीक्षा मनुकुमार, श्रीप्रिया, स्पूर्ति ने साथ दिया। जबकि, गायन में उडुपी श्रीनाथ, नट वांगम पर रूपमधुसूदन, मृदंगम पर नागई और पी श्रीराम और बांसुरी पर ए.पी. कृष्णा प्रसाद ने साथ दिया।

समारोह का समापन भोपाल की जानी—मानी नृत्यांगना सुवी.अनुराधा सिंह के कथक नृत्य से हुआ। ऊर्जावान कलाकार सुअनुराधा ने शिव वंदना से अपने नृत्य का आगाज किया। अपनी दूसरी प्रस्तुति में उन्होंने 5 लय में घुंघरू का चलन प्रस्तुत किया, जिसमें वायलिन के साथ घुंघरू की जुगलबंदी का प्रदर्शन माधुर्य पैदा करने वाला था। प्रस्तुति को विस्तार देते हुए अनुराधा सिंह ने राग हंसध्वनि में तराने पर नयनाभिराम प्रस्तुति दी, इसमें 27 चक्करों का बोल और कालिया मर्दन कथानक का वायलिन घुंघरू की जुगलबन्दी से जीवंत चित्रण ने दर्शकों पर जादू सा कर दिया। अगली प्रस्तुति में वी. अनुराधा सिंह ने रायगढ़ घराने के क्लिष्ट बोल एवं परन प्रस्तुत की, विद्युतीय गति से ऊर्जावान चक्करों के साथ अति द्रुत लय में उठान, परन एवं तिहाइयां इस प्रस्तुति का मुख्य आकर्षण रहे। इसके बाद उन्होंने राग कलावती में ठुमरी की प्रस्तुति द्वारा कथक के भावों में होली और कृष्ण की लीलाओं की और घुंघरू की उत्कृष्ट लयकारियों से उत्कृष्ट छटा बिखेरी। नृत्य का समापन उन्होंने "मोरी चुनरिया रंग दे" से किया। जिसमें घुंघरू के साथ होली के इंद्रधनुषी दृश्यों को विभिन्न तिहाईयो से चंचल चपल भावों से उन्होंने जीवंतता प्रदान की। उनके साथ गायन और तबले पर सलीम अल्लाहवाले, वायलिन पर मनोज बमरेले, सिंथेसाइजर पर शाहिद ने साथ दिया। कार्यक्रम का हिंदी संचालन विनय उपाध्याय और अंग्रेजी संचालन सुज्योति दुबे ने किया।

"कलावार्ता"

50वां खजुराहो नृत्य समारोह में आयोजित कलावार्ता की अंतिम सभा "पुरातात्विक साक्ष्यों के सन्दर्भ में हमारे संगीत और सांस्कृतिक अतीत के कलात्मक पहलुओं" के नाम रही। इस अवसर पर प्रख्यात पुरातत्वविद डॉ. शिवाकांत वाजपाई ने कहा कि पुरातत्व जीवन के हर हिस्से से संबंधित है। कोई भी चीज जो हमारे वेद पुराणों में है वह पुरातात्विक पैमानों से पुष्ट और प्रमाणित होती है। नृत्य संगीत भी कोई आज की चीज नहीं है, बल्कि यह हमारी प्राचीनतम धरोहर है, पुरा और प्रागैतिहासिक काल में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। बल्कि यूं कहें कि ये धरोहर तो पौराणिक और वैदिक काल से हमारे पास है। उन्होंने कहा कि नृत्य संगीत या दूसरी कलाएं हमारी प्राचीनतम परम्पराओं में पहले से विद्यमान रही हैं, खजुराहो सहित तमाम प्राचीन मंदिर और स्मारक इसके प्रमाण हैं। नृत्य संगीत की परंपरा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है । उन्होंने प्राचीन सिंधु घाटी और हड़प्पा सभ्यता का जिक्र करते हुए बताया कि हमारा संगीत और नृत्य इससे भी प्राचीन हैं।

अशोक से लेकर शुंग काल से लेकर मौर्य और गुप्तकालीन पुरातात्विक प्रमाणों से यह बात सामने रखने की कोशिश की कि तब भी कला—संस्कृति अपनी उत्कृष्ट अवस्था में थी। उन्होंने बेल्लारी कर्नाटक से खुदाई में मिले एक पाषाणकालीन डांसिंग पैनल को स्लाइड के माध्यम से उदधृत करते हुए कहा तब भी लोग खेती बाड़ी करते हुए खाली समय में कुछ तो करते ही थे, ये पैनल उसी का उदाहरण हैं। उन्होंने अवनद्ध वाद्यों, घन वाद्यों, सुशिर वाद्यों और तार वाद्यों के बारे में बताया कि ये वाद्य प्रागैतिहासिक काल और उसके बाद भी थे। एक हजार साल पुराने मंदिरों में अंकित इन मूर्तियों में ये वाद्य दृष्टव्य हैं। उन्होंने हड़प्पन सभ्यता की खुदाई में मिली पांच हजार साल पुरानी डांसिंग गर्ल या अर्नेस्ट मैके द्वारा कही गई अंडाकार सीटी और घुंघरुओं की तस्वीरें बताते हुए कहा कि ये वाद्य आज के नहीं है, बल्कि सदियों पहले से या मानव सभ्यता के साथ विकसित हुए हैं। उन्होंने मौर्य काल के संगीत में भी वाद्यों की मौजूदगी का जिक्र किया और कहा कि पुरातत्व हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास को पुष्ट करता है। सिंधु घाटी और मोहन जोदड़ो जो सर्वाधिक प्राचीन सिविलाइजेशन मानी जाती है, के दौरान भी कला संगीत नृत्य अपने उरूज पर थे। खजुराहो मंदिरों की स्लाइड्स के माध्यम से उन्होंने बताया कि इन मंदिरों पर उत्कीर्ण नृत्यरत प्रतिमाएं इस बात का सबूत हैं कि नृत्य संगीत की परंपरा बहुत प्राचीन हैं और आज जो नृत्य मुद्राएं हम देखते हंर वे सब इन प्रतिमाओं से अभिप्रेरित होकर गढ़ी गई हैं।

"लोकरंजन"

मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग एवं जिला प्रशासन, छतरपुर, दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, नागपुर के सहयोग से खजुराहो नृत्य समारोह परिसर में पारंपरिक कलाओं के राष्ट्रीय समारोह लोकरंजन के अंतिम दिन राजस्थान का मांगणियार गायन, घूमर, चरी, भवई एवं कालबेलिया एवं आंध्रप्रदेश का गुसाड़ी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। समारोह की शुरुआत सुरमनाथ कालबेलिया एवं साथी, राजस्थान द्वारा मांगणियार गायन से की गई। उन्होंने केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश…, गोरबंद नखरालो…, वह मन आवे हिचकी रे…, निंबुडा निंबुडा निंबुडा… जैसे कई गीतों की प्रस्तुति दी। अगले क्रम में राजस्थान के चरी नृत्य को प्रस्तुत किया गया। इस नृत्य में बांकिया, ढोल एवं थाली का प्रयोग किया जाता है। महिलाएं अपने सिर पर चरियाँ रखकर नृत्य करती हैं।अगले क्रम में आंध्रप्रदेश के गुसाड़ी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। गुसाड़ी नृत्य आंध्रप्रदेश में गोंड जनजाति के द्वारा किया जाता है। इनके द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों में इनकी संस्कृति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है।

"लयशाला"

लयशाला की अंतिम सभा सोमवार को रायगढ़ घराने के कथक और सत्रिया नृत्य के नाम रही। देश के जाने—माने नृत्य गुरु पद्मपंडित रामलाल, बिलासपुर ने यहां रायगढ़ घराने से नई पीढ़ी के कलाकारों और कला रसिकों को परिचित कराया। उन्होंने घराने की रचनाएं, प्रस्तुतिकरण की शैली, बंदिशें इत्यादि के बारे प्रदर्शन के साथ अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि आमद को रायगढ़ घराने में उपोदघात कहा जाता है। मैत्रावरण और बृजन छिंद बंदिशों पर भी प्रकाश डाला। महाराजा चक्रधर की ध्वनात्मक बंदिशें दल बादल, चमक बिजली, काव्यात्मक बंदिशें राधाकृष्ण लास्य, कृष्ण लास्य, चित्रात्मक बंदिशें दावानल, मत्स्य रंगावली बंदिशों के विषय में भी जानकारी साझा की। पंडित रामलाल जी ने कहा कि वे एक बार उज्जैन में महाकाल के दर्शन के लिए गए, जहां उन्होंने महाकाल नाम की बंदिश बनाई और उन्हें अर्पित कर दी।

 

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