इंदौरमध्यप्रदेश

इंदौर 20 सालों में बन चुका है भाजपा का गढ़, कांग्रेस यहां कभी नहीं बना पाई बढ़त

इंदौर

मालवा निमाड़ की 66 सीटों में इंदौर जिले की 9 सीटें काफी मायने रखती है। इन 9 सीटों पर बना माहौल मालवा निमाड़ की कई सीटों को प्रभावित करता है। बीते 20 सालों से इंदौर जिला भाजपा का गढ़ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। 9 में से चार सीटें कांग्रेस ने जीती थी, हालांकि तुलसी सिलावट के भाजपा में शामिल होने के बाद यह आंकड़ा छह और तीन रह गया।

इस बार कयास लगाए जा रहे है कि कांग्रेस दो से तीन सीटें इंदौर जिले से जीत सकती है, जबकि भाजपा तीन और पांच नंबर सीट ही कमजोर मान रही है। इस बार इंदौर में भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेशाध्यक्ष रहे जीतू पटवारी की प्रतिष्ठा भी दांव पर है। दोनो को कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ा है।

वर्ष 2013 में था भाजपा ने सिर्फ एक सीट गंवाई थी

इंदौर जिले की सीटों के ट्रेंड पर वर्ष 2003 से नजर डाले तो पता चलता है कि जिले में भाजपा ने हमेशा बढ़त ली है। वर्ष 2003 में जिले में आठ सीटें थी। उनमें से छह सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार चुनाव जीते थे,जबकि तीन और महू सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार अश्विन जोशी और अंतर सिंह दरबार चुनाव जीतेे। वर्ष 2008 में परिसीमन के बाद इंदौर जिले में राऊ सीट बढ़ गई।

इस साल भाजपा ने 9 में से छह सीटें जीती, जबकि देपालपुर, महू और सांवेर सीट पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया। भाजपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2013 में रहा। 9 में से आठ सीटेें भाजपा ने जीती। सिर्फ राऊ सीट पर कांग्रेस के जीतू पटवारी चुनाव जीत पाए थे। वर्ष 2018 में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा चार सीटें जीती थी,जबकि भाजपा ने पांच सीटें जीती। पांच नंबर विधानसभा सीट कांग्रेस सिर्फ 1200 वोटों से हारी थी।

चार नंबर विधानसभा क्षेत्र पिछले सात चुनाव से भाजपा के कब्जे में है। इस सीट से वर्ष 1990 में 32 प्रत्याशियों ने भाग्य आजमाया था, लेकिन सफलता भाजपा प्रत्याशी कैलाश विजयवर्गीय को मिली थी। इसके बाद से भाजपा ने यहां कभी पलटकर नहीं देखा।

वर्ष 1952 में इंदौर ‘डी’ के नाम से जाना जाता

30 वर्षों में इंदौर की इस विधानसभा सीट को इंदौर की अयोध्या के रूप में पहचान मिल चुकी है। अब तक हुए चुनावों में छह बार कांग्रेस को तो सात बार भाजपा को सफलता मिली है। इस विधानसभा सीट को वर्ष 1952 में इंदौर ‘डी’ के नाम से जाना जाता था। इस सीट के लिए हुए पहले चुनाव में कांग्रेस के वीवी सरवटे ने जनसंघ के नारायण वामन पंत वैद्य को हराया था।

कांग्रेस ने दशकों तक किया शासन

इसके बाद वर्ष 1957, 1962 और 1972 में भी यहां कांग्रेस को जीत हासिल हुई। वर्ष 1967 में इस विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी ने कांग्रेस के प्रत्याशी को पराजित किया था। वर्ष 1977 की इंदिरा विरोधी लहर में ढहा किला वर्ष 1977 की इंदिरा विरोधी लहर में कांग्रेस का यह किला ढह गया। जनता पार्टी के श्रीवल्लभ शर्मा ने कांग्रेस के चंद्रप्रभाष शेखर को सीधे मुकाबले में 13 हजार से ज्यादा मतों से हराया।

इकबाल खान को 25 हजार मतों से किया पराजित

हालांकि सिर्फ ढाई वर्ष बाद हुए चुनाव में कांग्रेसी यज्ञदत्त शर्मा ने श्रीवल्लभ शर्मा को 1134 मतों से पराजित कर दिया। वर्ष 1990 के बाद से भाजपा है काबिज इस विधानसभा की हवा वर्ष 1990 से बदली। वर्ष 1990 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस के प्रत्याशी इकबाल खान को 25 हजार से ज्यादा मतों से पराजित किया। इसके बाद वर्ष 1993, 1998 और 2003 में भाजपा ने लक्ष्मणसिंह गौड़ को मैदान में उतारा। उन्होंने लगातार तीन बार इस सीट पर जीत दर्ज की।

 

भाजपा ने कांग्रेस प्रत्याशी को 45625 वोटों से हराया

गौड़ के आकस्मिक निधन के बाद भी यह सीट उन्हीं के परिवार के पास रही। भाजपा ने उनकी पत्नी मालिनी गौड़ को 2008 में यहां से मौका दिया। इसके बाद से यह सीट उन्हें के पास है। सबसे बड़ी जीत, सबसे करीबी हार इस विधानसभा सीट में मतदान का प्रतिशत इक्का-दुक्का मौकों को छोड़कर हमेशा 50 प्रतिशत से अधिक रहा है। वर्ष 2003 में भाजपा के लक्ष्मणसिंह गौड़ ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ललित जैन को 45625 मतों से हराया।

 

 

 

यह इस विधानसभा की अब तक की सबसे बड़ी जीत है। इसी तरह 1967 में कांग्रेस के नारायण प्रसाद शुक्ला निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रहे यज्ञदत्त शर्मा से महज 100 मतों से चुनाव हार गए थे। यह इस विधानसभा की अब तक की सबसे करीबी हार है।

Pradesh 24 News
       
   

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button