बाल यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत , पीड़ितों को न्याय मिलने में हो रहा विलम्ब
पुराने प्रकरणों की सुनवाई के लिए लग सकते हैं 9 साल, 2022 के फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट में 2,68,038 मामले
मात्र 3 फीसदी केस में हुई सुनवाई,मिली सजा
भारत में, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 यौन अपराधों के विभिन्न प्रारूपों की बात करता है। साथ ही वह 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के साथ किसी भी यौन गतिविधि के लिए दंड का निर्धारण करता है। बाल यौन शोषण (सीएसए) में कई प्रकार की यौन गतिविधियाँ सम्मिलित हैं,जैसे बच्चे को प्यार करना/गले लगाना, बच्चे को यौनिक रूप से छूने के लिए बुलाना या फिर छूने के लिए कहना, संभोग, अंगप्रदर्शन,बच्चे को वेश्यावृत्ति या अश्लील साहित्य में शामिल करना,या साइबर-शिकारियों द्वारा ऑनलाइन बच्चे लालच देना अदि।
1023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट बनाये गए
भारत सरकार द्वारा आरम्भ की गयी एक विशेष योजना का आधार बाल यौन शोषण में लगातार चिंताजनक वृद्धि और इससे निपटने या इसका हल निकालने में बहुत ही धीमी दर थी। केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में इस योजना का क्रियान्वयन अक्टूबर 2019 से देश भर में यौन शोषण से पीड़ित बच्चों की तत्काल सुनवाई और उन्हें न्याय प्रदान करने के लिए किया जा रहा है और यह कार्य 1,023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) के गठन और उनमे हो रहे कार्यों के माध्यम से हो रहा है।
2026 तक के लिए फंड जारी
भारत के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने रु. 1952.23 करोड़ की कुल लागत के साथ 1 अप्रैल, 2023 से 31 मार्च, 2026 की अवधि के लिए केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) के रूप में फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) को जारी रखने की अनुमति प्रदान की है। इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) का यह पेपर भारत में पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत निष्पादित किए गए मामलों का विश्लेषण प्रदान करता है।
विश्लेषण के प्रमुख निष्कर्ष
- वर्ष 2022 में राष्ट्रीय स्तर पर मात्र 3 प्रतिशत मुकदमों में ही दंड प्रदान किया गया। कुल 2,68,038 मामलों में से मात्र 8,909 मामलों में सुनवाई चली और दंड सुनाया गया।
- 2022 में प्रत्येक एफआईटीसी द्वारा औसतन मात्र 28 पॉक्सो मुकदमों का निस्तारण किया गया था।
- 2022 में, प्रत्येक पॉक्सो मामले के निष्पादन पर औसत व्यय 2.73 लाख रुपये था। इसी प्रकार यह भी अनुमान लगाया गया कि पॉक्सो मामलों में जिन में सफलतापूर्वक सजा सुनाई जा चुकी है, उनमें प्रत्येक मामले में सरकारी खजाने पर औसतन 8.83 लाख रुपये का वित्तीय खर्च आया।
- भारत में 31 जनवरी, 2023 तक पॉक्सो के इतने मुक़दमे लंबित हैं कि यदि अब कोई नया मामला नहीं आता है तो पुराने मुकदमों का निर्धारण करने में ही लगभग नौ (9) वर्ष लगेंगे।
- पुराने 2.43 लाख लंबित पॉक्सो मुकदमों की स्थिति को देखते हुए यह अनिवार्य है कि जिला स्तर पर स्थिति का एक बार पुन: मूल्यांकन किया जाए एवं आवश्यकतानुसार नए ई-पॉक्सो न्यायालय स्थापित किए जाएं।
- योजना के अनुसार स्वीकृत सभी 1,023 फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालय पूरी तरह से कार्यात्मक होने चाहिए।
- यह भी विडंबना है कि पीड़ित के लिए न्याय की लड़ाई निचले न्यायालय में न्याय पाने के साथ समाप्त नहीं होती है बल्कि जब तक अपील की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक वह लड़ाई जारी रहती है। अत: त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि अपील/मुकदमे का समय परिभाषित किया जाना चाहिए। अत:, इस संबंध में नीतियों का गठन किया जाना चाहिए एवं लंबित पॉक्सो मामलों की निगरानी और जल्दी हल निकलने के लिए उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय स्तर पर समयबद्ध रूपरेखा बनाई जानी चाहिए।
अनिल भवरे, जिला समन्वयक, कृषक सहयोग संस्थान (लेखक,प्रस्तुतकर्ता-महिलाओं और बच्चों के मुद्दों पर संवेदनशील समाजिक कार्यकर्ता हैं।)